वांछित मन्त्र चुनें

मा सा ते॑ अ॒स्मत्सु॑म॒तिर्वि द॑स॒द्वाज॑प्रमह॒: समिषो॑ वरन्त। आ नो॑ भज मघव॒न्गोष्व॒र्यो मंहि॑ष्ठास्ते सध॒माद॑: स्याम ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā sā te asmat sumatir vi dasad vājapramahaḥ sam iṣo varanta | ā no bhaja maghavan goṣv aryo maṁhiṣṭhās te sadhamādaḥ syāma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। सा। ते॒। अ॒स्मत्। सु॒ऽम॒तिः। वि। द॒स॒त्। वाज॑ऽप्रमहः। सम्। इषः॑। व॒र॒न्त॒। आ। नः॒। भ॒ज॒। म॒घ॒ऽव॒न्। गोषु॑। अ॒र्यः। मंहि॑ष्ठाः। ते॒। स॒ध॒ऽमादः॑। स्या॒म॒ ॥ १.१२१.१५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:121» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:15


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वाजप्रमहः) विशेष ज्ञान वा विद्वानों ने अच्छे प्रकार सत्कार को प्राप्त किये (मघवन्) और प्रशंसित सत्कार करने योग्य धन से युक्त जगदीश्वर ! (ते) आपकी कृपा से जो (सुमतिः) उत्तम बुद्धि है (सा) सो (अस्मत्) हमारे निकट से (मा) मत (वि, दसत्) विनाश को प्राप्त होवे सब मनुष्य (इषः) इच्छा और अन्न आदि पदार्थों को (सं, वरन्त) अच्छे प्रकार स्वीकार करें (अर्यः) स्वामी ईश्वर आप (नः) हम लोगों को (गोषु) पृथिवी, वाणी, धेनु और धर्म के प्रकाशों में (आ, भज) चाहो, जिससे (मंहिष्ठाः) अत्यन्त सुख और विद्या आदि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त हुए हम लोग (ते) आपके (सधमादः) अति आनन्दसहित (स्याम) अर्थात् आपके विचार में मग्न हों ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि उत्तम बुद्धि आदि की प्राप्ति के लिये परमेश्वर को स्वामी मानें और उसकी प्रार्थना करें। जिससे ईश्वर के जैसे गुण, कर्म और स्वभाव हैं, वैसे अपने सिद्ध करके परमात्मा के साथ आनन्द में निरन्तर स्थित हों ॥ १५ ॥इस सूक्त में स्त्री-पुरुष और राज-प्रजा आदि के धर्म का वर्णन होने से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥हे जगदीश्वर ! जैसे आपकी कृपाकटाक्ष का सहाय जिसको प्राप्त हुआ, उस मैंने ऋग्वेद के प्रथम अष्टक का भाष्य सुख से बनाया, वैसे आगे भी वह ऋग्वेदभाष्य मुझसे बन सके ॥यह प्रथम अष्टक के आठवें अध्याय में छब्बीसवाँ वर्ग, प्रथम अष्टक, आठवाँ अध्याय और एकसौ इक्कीसवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥ १५ ॥।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण परमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते ऋग्वेदभाष्ये प्रथमाष्टकेऽष्टमोऽध्यायोऽलमगात् ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरविषयमाह ।

अन्वय:

हे वाजप्रमहो मघवञ्जगदीश्वर ते तव कृपया या सुमतिस्साऽस्मन्मा वि दसत्कदाचिन्न विनश्येत् सर्वे जना इषः संवरन्त। अर्यस्त्वं नोऽस्मान् गोष्वाभज यतो मंहिष्ठाः सन्तो वयं ते तव सधमादः स्याम ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) निषेधे (सा) प्रतिपादितपूर्वा (ते) तव (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (सुमतिः) शोभना बुद्धिः (वि) (दसत्) क्षयेत् (वाजप्रमहः) वाजैर्विज्ञानादिभिर्विद्वद्भिर्वा प्रकृष्टतया मह्यते पूज्यते यस्तत्संबुद्धौ (सम्) (इषः) इच्छा अन्नादीनि वा (वरन्त) वृणवन्तु। विकरणव्यत्ययेन शप्। (आ) (नः) अस्मान् (भज) अभिलष (मघवन्) प्रशस्तपूज्यधनयुक्त (गोषु) पृथिवीवाणीधेनुधर्मप्रकाशेषु (अर्यः) स्वामीश्वरः (मंहिष्ठा) अतिशयेन सुखविद्यादिभिर्वर्द्धमानाः (ते) तव (सधमादः) महानन्दिताः (स्याम) भवेम ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सुप्रज्ञादिप्राप्तये परमेश्वरः स्वामी मन्तव्यः प्रार्थनीयश्च। यत ईश्वरस्य यादृशा गुणकर्मस्वभावाः सन्ति तादृशान् स्वकीयान् संपाद्य परमात्मना सहानन्दे सततं तिष्ठेयुः ॥ १५ ॥अत्र स्त्रीपुरुषराजप्रजादिधर्मवर्णनादेतदुक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ हे जगदीश्वर यथा भवत्कृपाकटाक्षसहायप्राप्तेन मयर्ग्वेदस्य प्रथमाष्टकस्य भाष्यं सुखेन संपादितं तथैवाग्रेऽपि कर्त्तुं शक्येत ॥इति प्रथमाष्टकेऽष्टमेऽध्याये षड्विंशो वर्गः प्रथमोऽष्टकोऽष्टमोऽध्याय एकविंशत्युत्तरं शततमं सूक्तं च समाप्तम् ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी उत्तम बुद्धीच्या प्राप्तीसाठी परमेश्वराला स्वामी मानून त्याची प्रार्थना करावी. ईश्वराचे जसे गुण, कर्म, स्वभाव आहेत तसे आपले सिद्ध करून परमेश्वराजवळ सदैव आनंदात स्थित असावे. ॥ १५ ॥